इन्सान की चाहत है की ,उड़ने को पर मिले ।
और पंक्षी सोंचते हैं की , रहने को घर मिले ।
रस्ते में पड़े हैं जो , हैं मंजिल की चाह में ,
मुकम्मल हुए तो सोंचें , फिर से सफर मिले ।
बचपन में चाहत थी की , जल्दी से जवां हों ,
जवानी में फिर चाहत हुई , कच्ची उमर मिले ।
मिले न थे तो चाह थी , बस दूर से दिखें ,
दिखते ही फिर हसरत हुई , उनसे नजर मिले ।
हो जायेंगे इक दिन वो , हमारे खिलाफ भी ,
हमसे कोई अच्छा उन्हें , जो हमसफर मिले ।
और पंक्षी सोंचते हैं की , रहने को घर मिले ।
रस्ते में पड़े हैं जो , हैं मंजिल की चाह में ,
मुकम्मल हुए तो सोंचें , फिर से सफर मिले ।
बचपन में चाहत थी की , जल्दी से जवां हों ,
जवानी में फिर चाहत हुई , कच्ची उमर मिले ।
मिले न थे तो चाह थी , बस दूर से दिखें ,
दिखते ही फिर हसरत हुई , उनसे नजर मिले ।
हो जायेंगे इक दिन वो , हमारे खिलाफ भी ,
हमसे कोई अच्छा उन्हें , जो हमसफर मिले ।
No comments:
Post a Comment