Friday, February 1, 2013

न जाने क्यूँ

न जाने क्यूँ ,  उससे कोई  रिश्ता पुराना लगता है ।
न जाने क्यूँ , वो अंजाना , जाना पहचाना लगता है ।

न जाने क्यूँ ,उसपे मुझको  मरना भी अच्छा लगता है ।
न जाने क्यूँ  , उससे मुझको  लड़ना अच्छा लगता है ।

न जाने क्यूँ ,  इन  बातों में खोना भी अच्छा लगता है ।
न जाने क्यूँ  , उसकी खातिर रोना भी अच्छा लगता है ।

न जाने क्यूँ  , उससे बगावत करने को मन करता है ।
न जाने क्यूँ , उससे शरारत करने को मन करता है ।

न जाने क्यूँ ,  उसकी झूठी बातें भी सच्ची लगती हैं ।
न जाने क्यूँ , ये  दोस्ती जन्नत से अच्छी लगती है ।

न जाने क्यूँ  ,वो सच होकर भी कोई सपना लगता है ।
न जाने क्यूँ  , वो अजनबी मुझे इतना अपना लगता है ।

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर प्रीती जी...
    आपका ग़ज़ल कहने का अंदाज़ अच्छा है..कुछ जुदा सा...

    न जाने क्यूँ , इन बातों में खोना भी अच्छा लगता है ।
    न जाने क्यूँ , उसकी खातिर रोना भी अच्छा लगता है ।
    वाह..

    अनु

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