न जाने क्यूँ , उससे कोई रिश्ता पुराना लगता है ।
न जाने क्यूँ , वो अंजाना , जाना पहचाना लगता है ।
न जाने क्यूँ ,उसपे मुझको मरना भी अच्छा लगता है ।
न जाने क्यूँ , उससे मुझको लड़ना अच्छा लगता है ।
न जाने क्यूँ , इन बातों में खोना भी अच्छा लगता है ।
न जाने क्यूँ , उसकी खातिर रोना भी अच्छा लगता है ।
न जाने क्यूँ , उससे बगावत करने को मन करता है ।
न जाने क्यूँ , उससे शरारत करने को मन करता है ।
न जाने क्यूँ , उसकी झूठी बातें भी सच्ची लगती हैं ।
न जाने क्यूँ , ये दोस्ती जन्नत से अच्छी लगती है ।
न जाने क्यूँ ,वो सच होकर भी कोई सपना लगता है ।
न जाने क्यूँ , वो अजनबी मुझे इतना अपना लगता है ।
न जाने क्यूँ , वो अंजाना , जाना पहचाना लगता है ।
न जाने क्यूँ ,उसपे मुझको मरना भी अच्छा लगता है ।
न जाने क्यूँ , उससे मुझको लड़ना अच्छा लगता है ।
न जाने क्यूँ , इन बातों में खोना भी अच्छा लगता है ।
न जाने क्यूँ , उसकी खातिर रोना भी अच्छा लगता है ।
न जाने क्यूँ , उससे बगावत करने को मन करता है ।
न जाने क्यूँ , उससे शरारत करने को मन करता है ।
न जाने क्यूँ , उसकी झूठी बातें भी सच्ची लगती हैं ।
न जाने क्यूँ , ये दोस्ती जन्नत से अच्छी लगती है ।
न जाने क्यूँ ,वो सच होकर भी कोई सपना लगता है ।
न जाने क्यूँ , वो अजनबी मुझे इतना अपना लगता है ।
बहुत सुन्दर प्रीती जी...
ReplyDeleteआपका ग़ज़ल कहने का अंदाज़ अच्छा है..कुछ जुदा सा...
न जाने क्यूँ , इन बातों में खोना भी अच्छा लगता है ।
न जाने क्यूँ , उसकी खातिर रोना भी अच्छा लगता है ।
वाह..
अनु