कुछ रिस्ते ऐसे उलझे थे ,
सुलझाते - सुलझाते टूट गये ।
वो आये हमको समझाने ,
खुद जाते - जाते रूठ गये ।
वो दर्द दबाकर बैठे थे ,
हँस -हँस के सबसे मिलते थे ,
हमने जो हाल जरा पूछा ,
वो हाल सुनाते टूट गये ।
इक माँ बाबूजी जब तक थें ,
भाई - भौजाई अपने थे ,
इक वो न रहे जो दुनियां में ,
सब रिस्ते - नाते टूट गये ।
रिस्ते भी हैं रंगों जैसे ,
कुछ कच्चे -पक्के होते हैं ,
कुछ रंग उमर भर ना निकलें ,
कुछ रंग लगाते छूट गये ।
सुलझाते - सुलझाते टूट गये ।
वो आये हमको समझाने ,
खुद जाते - जाते रूठ गये ।
वो दर्द दबाकर बैठे थे ,
हँस -हँस के सबसे मिलते थे ,
हमने जो हाल जरा पूछा ,
वो हाल सुनाते टूट गये ।
इक माँ बाबूजी जब तक थें ,
भाई - भौजाई अपने थे ,
इक वो न रहे जो दुनियां में ,
सब रिस्ते - नाते टूट गये ।
रिस्ते भी हैं रंगों जैसे ,
कुछ कच्चे -पक्के होते हैं ,
कुछ रंग उमर भर ना निकलें ,
कुछ रंग लगाते छूट गये ।
इक माँ बाबूजी जब तक थें ,
ReplyDeleteभाई - भौजाई अपने थे ,
इक वो न रहे जो दुनियां में ,
सब रिस्ते - नाते टूट गये ...
बहुत ही सच लिए हैं ये पंक्तियाँ ... जीवन के कडुवे सच को लिखा है इन लाइनों में ... बहुत उम्दा ...
रिस्ते भी हैं रंगों जैसे ,
ReplyDeleteकुछ कच्चे -पक्के होते हैं ,
कुछ रंग उमर भर ना निकलें ,
कुछ रंग लगाते छूट गये ।>>>>>>>>>>>>>>sundar sab