Monday, April 7, 2014

रिस्ते भी हैं रंगों जैसे

कुछ रिस्ते ऐसे उलझे थे ,
सुलझाते - सुलझाते टूट गये ।

वो आये हमको समझाने ,
खुद जाते - जाते रूठ गये ।

वो दर्द दबाकर बैठे थे ,
हँस -हँस के सबसे मिलते थे ,
हमने जो हाल जरा पूछा ,
वो हाल सुनाते टूट गये ।

इक माँ बाबूजी जब तक थें ,
भाई - भौजाई अपने थे ,
इक वो न रहे जो दुनियां में ,
सब रिस्ते - नाते टूट गये ।

रिस्ते भी हैं रंगों जैसे ,
कुछ कच्चे -पक्के होते हैं ,
कुछ रंग उमर भर ना निकलें ,
कुछ रंग लगाते छूट गये ।

2 comments:

  1. इक माँ बाबूजी जब तक थें ,
    भाई - भौजाई अपने थे ,
    इक वो न रहे जो दुनियां में ,
    सब रिस्ते - नाते टूट गये ...
    बहुत ही सच लिए हैं ये पंक्तियाँ ... जीवन के कडुवे सच को लिखा है इन लाइनों में ... बहुत उम्दा ...

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  2. रिस्ते भी हैं रंगों जैसे ,
    कुछ कच्चे -पक्के होते हैं ,
    कुछ रंग उमर भर ना निकलें ,
    कुछ रंग लगाते छूट गये ।>>>>>>>>>>>>>>sundar sab

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